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Wednesday, January 6, 2016

न जाने क्यों
ये इंशा बदल रहा है

रहता था जो हंसमुख सदा
एक अलग सी खामोशी में
बंधता ही जा रहा है

रहता था तरोताजा हरदम
अच्छे अच्छे विचारों से
आज उसी ताजगी को
वो खोता ही जा रहा है

हँसता भी है गर वो
तो दिखावा सा ही होता है
न हिलते है होंठ
न चमक आती है आँखों में

सैर पर जाता है तो भी
पैरों में ही होती है हलचल
खुद तो फोन पर न जाने किस
तनाव में खोया रहता है

खा लेता है खाना कभी कभी
परिवार संग बैठकर,
पर तब भी के तन ही होता है
मौजूद खाने की मेज पर

आता है काम से लौटकर
तब भी टूटा सा ही होता है
मुश्किल से पकड़ पाता है घर
आता है दुनियाँ से हारकर

नही आती है नींद
बचपन के खर्राटों वाली अब
गुजर जाती है रात भी
यूँ ही करवटें बदल बदलकर

समझ नही आया "संजू " कि
किसने बाँध रखा है उसकी हँसी को,
उसके पुराने जोश को

कहने को तो वो
कामयाब ही कामयाब होता जा रहा है
पर अपने चंचल मन की मस्ती
और अपनी खुद की हस्ती
सबको खोता ही जा रहा है

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