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Tuesday, January 26, 2016

जालिम है ये  जमाना
कर देते है दिल बेगाना पर
वतन से सुंदर कोई सनम नही
काम आये खून  हमारा वतन पर,
इससे बढ़कर कोई मानव जन्म नही
अर्पित कर दो जान वतन  वास्ते
इससे बढ़कर कोई सेवा नही
देखे है लोग इस ज़माने में
मरते पैसों से लिपटकर
लोगों  की आँखो में
कभी दिखे नही
त्याग दो दोस्तों तुम
अब  मोहब्बत कागजी
छोड़ दो तुम सब अफ़साने
कर देते है जो अपनो से बेगाने
छोड़कर अब ये दुनियाँ दिखावटी
करो मिलकर  सब कोई जतन सही
बिखरी है खूबसूरती   दुनियाँ में बहुत
मगर  तिरंगे  से बढ़कर न  मिलेगा 
कोई  इससे  सुंदर कफ़न कहीँ
देशभक्ति के रास्ते पर तुम
अपने   क़दम बढ़ाओ
एक बार ही सही

संजय किरमारा

Wednesday, January 13, 2016

जीविका निर्वाह की व्यस्तता में हम कुछ इस तरह खो गये
कि हम लौहडी  और संक्राति जैसे त्योहारों  को  भूल गये

नही याद आयी
वो तिलों वाली रेबडिय़ां
नही याद आयी
वो गर्मा गरम मूंगफलियाँ

जी हाँ दोस्तों, सच में कितनी अजीब विडम्बना हैं कि जीवन की व्यस्तता में इस हद तक डूब गये कि हमें ये त्योहार भी याद नही आये !
अब जब काम निपटाकर जब सोने की तैयारी की तो देखा मित्रों, सम्बन्धियों के सैंकङो शुभकामना संदेश आये हुए थे !  ओह हो हम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं कि हमें हमारे बचपन के मस्ती वाले त्योहार भी याद न आये ?
अब याद आ रहे हैं वो पल जब पाँचवी -छटी  कक्षा में पाँच पाँच -दस दस रुपये इक्कठ्ठे करते थे और कुछ पैसे अध्यापकों से लेकर रेबडिय़ां और मूँगफलियाँ  लाते थे ! पूरी कक्षा के सभी बच्चे  एक साथ बैठकर खाते थे !सच में कितने अनमोल थे वो पल ? रात को जब सब दोस्त मिलकर आग जलाते थे और उसके चारो और बैठकर गाने गाते थे और मजाक बनाते थे !
शायद वो पल आज दुबारा न आ पाये पर आज भी उन पलों को याद करके दिल बाग बाग हो जाता हैं , वो यादें आज भी जब ताजा हो जाती हैं तो मानो हमें सब कुछ मिल गया !
कितना अपनापन होता था इस त्योहार में, कितनी खुशी होती थी  और कितना उत्साह होता था इसमें !
इसलिए सबसे ये ही निवेदन हैं मित्रों आप जहां भी हो-
इस संस्कॄति को गुम मत होने देना  
बेशक खो जाओ कहीँ पर इन त्योहारों के उत्साह को कम होने मत देना

धन्यवाद
संजय किरमारा
13/1/2016

Friday, January 8, 2016

कशमश है उँगलियों में

आज फ़िर से ये उँगलियाँ
जाने क्यों कशमशा रही है
चाहती है कुछ लिखना शायद
मन ही मन कुछ ये गा रही है

फूटेंगी ये आज
ज़रूर को रचना बनकर
लिखेंगी कुछ ये पक्का
खुद ही आगे बढ़कर

पड़ा मेज के कोने पे
सफेद पन्ना भी आज तो
यूँ ही फ़ड़फ़ड़ा रहा है
चलाने खुद पर कलम
कब से ये अड़ा जा रहा है

मन में भी अलग ही
उथल पुथल मची है
कुछ होगा नया आज
ये बात तो मन में जंची है

सुबह से ये दिल भी
यूही भटक रहा है
कुछ न कुछ आज तो
पक्का खटक रहा है

बन जायेगा संगम जब
इन सब चीजों का गर
होगा शब्दों का मेल और
दिखेगा सबका असर

शायद वीरां प्रदेश में
कोई बगिया खिलने वाली है
बनाकर कोई रस्ता
चीर कर पहाडों को
कोई नदी निकलने वाली है

शब्दों के मेल से कोई नई
"संजू" लय मिलने वाली है
इस उथल पुथल में से
कोई रचना निकलने वाली है

Wednesday, January 6, 2016

न जाने क्यों
ये इंशा बदल रहा है

रहता था जो हंसमुख सदा
एक अलग सी खामोशी में
बंधता ही जा रहा है

रहता था तरोताजा हरदम
अच्छे अच्छे विचारों से
आज उसी ताजगी को
वो खोता ही जा रहा है

हँसता भी है गर वो
तो दिखावा सा ही होता है
न हिलते है होंठ
न चमक आती है आँखों में

सैर पर जाता है तो भी
पैरों में ही होती है हलचल
खुद तो फोन पर न जाने किस
तनाव में खोया रहता है

खा लेता है खाना कभी कभी
परिवार संग बैठकर,
पर तब भी के तन ही होता है
मौजूद खाने की मेज पर

आता है काम से लौटकर
तब भी टूटा सा ही होता है
मुश्किल से पकड़ पाता है घर
आता है दुनियाँ से हारकर

नही आती है नींद
बचपन के खर्राटों वाली अब
गुजर जाती है रात भी
यूँ ही करवटें बदल बदलकर

समझ नही आया "संजू " कि
किसने बाँध रखा है उसकी हँसी को,
उसके पुराने जोश को

कहने को तो वो
कामयाब ही कामयाब होता जा रहा है
पर अपने चंचल मन की मस्ती
और अपनी खुद की हस्ती
सबको खोता ही जा रहा है