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Saturday, September 26, 2015

घर से ये जो मेरी  दूरी है
खुशी नही ये मजबूरी है

निकला था घर से तन्हा
पाने चैन और राहत को
भटक रहा हूं दर - बदर
पाने को अपनी चाहत को
हुआ हूं परेशान बहुत पर
हसरतें अभी सभी  अधूरी है
खुशी नही ये .............

न जाने कितने शख्सो से
पूरा दिन मैं मिलता हूं
आचार विचार देखकर इनके
कभी मुरझाता,कभी खिलता हूं
चाहता हूं बसना एक जगह
पर भटकना भी शायद ज़रूरी है
खुशी नही ये ................

खा खाकर ठोकरें समय की
अब ये समझ आने लगा है
परेशां है दुनियाँ में हर कोई
यहाँ सब नज़र आने लगा है
नही मानुंगा हार अंत तक
जीतना भी बहुत ज़रूरी है
खुशी नही ये .................

पता नही क्यों अपनी जिंदगी
भटककर यूं ही खो रहा हूं
कभी तोड़ता  हूं फूल मालाये
कभी पत्ते पत्ते पिरो रहा हूं
चल पड़ अब घर की और "संजू "
हसरतें होती नही सभी पूरी है
खुशी नही है ये मजबूरी है
घर से ये जो मेरी दूरी है
खुशी नही है ये मजबूरी है

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